रस की परिभाषा

रस का शाब्दिक अर्थ है – आनन्द

साहित्य को पढ़ने, सुनने या नाटकादि को देखने से जो आनन्द की अनुभूति होती है, उसे ‘रस’ कहते हैं।

रस के चार अंग

रस के मुख्य रुप से चार अंग माने जाते हैं, जो निम्न प्रकार …


1. स्थायीभाव
2. विभाव
3. अनुभाव
4. व्यभिचारी अथवा संचारी

1. स्थायी भाव

स्थायी भाव का अभिप्राय है- प्रधान भाव। रस की अवस्था तक पहुंचने वाले भाव को प्रधान भाव कहते हैं। स्थायी भाव काव्य या नाटक में शुरुआत से अंत तक होता है। स्थायी भावों की संख्या नौ स्वीकार की गयी है।

संख्या स्थायी भाव          रस

1 रति                      श्रृंगार
2 हास                     हास्य
3 शोक                    करूण
4 क्रोध                     रौद्र
5 उत्साह                   वीर
6 भय                     भयानक
7 जुगुप्सा(घृणा)        वीभत्स
8 विस्मय                 अद्भुत
9 निर्वेद (वैराग)          शांत…

स्थायी भावों का संक्षिप्त अर्थ

1. रति– प्रिय वस्तु में मन के प्रेमपूर्ण उन्मुखी भाव को ‘रति’ कहते हैं।

2. हास– वाणी आदि के विकारों को देखकर मन का आनंदित होना ही ‘हास’ है।

3.शोक- किसी प्रिय वस्तु के नष्ट होने के कारण उत्पन्न मन की व्याकुलता को ही ‘शोक’ कहते हैं

4.क्रोध– शत्रुओं के विषय में आवेश का दूसरा नाम ‘क्रोध’ है।

5.उत्साह – कार्य करने में स्थिरता तथा उत्कट आवेश को ही उत्साह’ कहते 

6. भय-किसी रौद्र की शक्ति से उत्पन्न, मन को व्याकुल कर देने वाला भाव भय कहलाता 

7. जुगुप्सा– दोष के कारण किसी वस्तु के प्रति उत्पन्न घृणा को जुगुप्सा कहते

8.विस्मय– अलौकिक शक्ति से युक्त किसी वस्तु के दर्शन इत्यादि से उत्पन्न मन के विस्तार को विस्मय कहते

9.निर्वेद – इच्छाहीनता की अवस्था में अथवा सभी प्रकार की इच्छाओं के शान्त हो जाने पर आत्मा के विश्राम से उत्पन्न सुख को ही ‘शम’ या ‘निर्वेद’ कहते हैं

2. विभाव

विभाव का मतलब है, ‘कारण’। जिन कारणों से सहृदय सामाजिक के हृदय में स्थित स्थायी भाव विकसित होता है, उन्हें विभाव कहते हैं।

विभाव दो प्रकार का होता है:

  • आलम्बन विभाव– जिसके कारण आश्रम के हृदय में स्थायी भाव उदबुद्ध होता है। उसे आलम्बन विभाव कहते हैं।
  • उद्दीपन विभाव– ये आलम्बन विभाव के सहायक एवं अनुवर्ती होते हैं। उद्दीपन के अन्तर्गत आलम्बन की चेष्टाएँ एवं बाह्य वातावरण- दो तत्त्व आते हैं, जो स्थायी भाव को और अधिक उद्दीप्त, प्रबुद्ध एवं उत्तेजित कर देते हैं। 

3. अनुभाव
आलम्बन की चेष्टाएँ (कोशिश करने के लिए, इच्छा) उद्दीपन के अन्तर्गत मानी गयी हैं, जबकि आश्रय की चेष्टाएँ अनुभाव के अन्तर्गत आती हैं।

अनुभाव को परिभाषित करते हुए कहा गया है-

” अनुभावो भाव बोधक: “

अर्थात् भाव का बोध कराने वाला कारण अनुभाव कहलाता है। आश्रय की वे बाह्य चेष्टाएँ, जिनसे यह ज्ञात होता है कि उसके हृदय में कौन-सा भाव उबुद्ध हुआ है, अनुभाव कहलाती हैं।

अनुभाव चार प्रकार के होते हैं:

आंगिक (कायिक) – शरीर की चेष्टाओं से प्रकट होते हैं।
वाचिक– वाणी से प्रकट होते हैं।
आहार्य – वेशभूषा, अलंकरण से प्रकट होते हैं।
सात्विक – सत्व के योग से उत्पन्न वे चेष्टाएँ जिन पर हमारा वश नहीं होता सात्विक अनुभाव कही जाती हैं। इनकी संख्या आठ है- स्वेद, कम्प, रोमांच, स्तम्भ, स्वरभंग, अश्रु, वैवर्ण्य, प्रलाप आदि

4. संचारी भाव अथवा व्यभिचारी भाव 

स्थायी भाव को पुष्ट करने वाले संचारी भाव कहलाते हैं। ये सभी रसों में होते हैं। इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है। इनकी संख्या 33 मानी गयी है।

महाराजा ‘ जसवंत’ सिंह ने अपने ग्रन्थ ‘भाषा-भूषण’ में इनका इस प्रकार वर्णन किया है-

निर्वेदौ शंका गरब चिन्ता मोह विषाद । 
दैन्य असूया मृत्यु मद, आलस श्रम उन्माद ॥ 
प्रकृति-गोपन चपलता अपसमार भय ग्लानि । 
बीड़ा जड़ता हर्ष धृति मति आवेग बखानि ॥ 
उत्कंठा निद्रा स्वपन बोध उग्रता बनाय । 
व्याधि अमर्ष वितर्क स्मृति ये तैंतीस गनाय ॥ 
(‘भाषा-भूषण’ जसवंत सिंह)

रस के प्रकार
वस्तुतः रस की संख्या 9 ही है।

1. श्रृंगार रस
2.करुण रस
3. हास्य रस
4. वीर रस
5. रौद्र रस
6. भयानक रस
7. बीभत्स रस
8. अद्भुत रस
9. शान्त रस
10.वात्सल्य रस
11. भक्ति रस

1. श्रृंगार रस–     जब नायक-नायिका के मिलन की स्थिति की व्याख्या होती है वहाँ संयोग श्रृंगार रस होता है।

एक पल मेरे प्रिया के दूग पलक,
थे उठे ऊपर, सहज नीचे गिरे।
चपलता ने इस विकंपित पुलक से,
दृढ़ किया मानो प्रणय सम्बन्ध था

2. करुण रस
प्रिय वस्तु या व्यक्ति के समाप्त अथवा नाश कर देने वाला भाव होने पर हृदय में उत्पन्न शोक स्थायी भाव करुण रस के रूप में व्यक्त होता है।

अभी तो मुकुट बँधा था माथ,
हुए कल ही हल्दी के हाथ।
खुले भी न थे लाज के बोल,
खिले थे चुम्बन शून्य कपोल।
हाय! रुक गया यहीं संसार,
बना सिन्दूर अनल अंगार
– सुमित्रानन्दन पन्त

3.हास्य रस

किसी व्यक्ति की अनोखी विचित्र वेशभूषा, रूप, हाव-भाव को देखकर अथवा सुनकर जो हास्यभाव जाग्रत होता है, वही हास्य रस कहलाता है। 

सखि! बात सुनो इक मोहन की, 
निकसी मटुकी सिर रीती ले कै।
पुनि बाँधि लयो सु नये नतना, 
रु कहूँ-कहूँ बुन्द करी छल कै। 
निकसी उहि गैल हुते जहाँ मोहन, 
लीनी उतारि तबै चल कै।
पतुकी धरि स्याम सिखाय रहे, 
उत ग्वारि हँसी मुख आँचल

4.वीर रस

युद्ध अथवा शौर्य पराक्रम वाले कार्यों में हृदय में जो उत्साह उत्पन्न होता है, उस रस को उत्साह रस कहते है। 

हे सारथे ! हैं द्रोण क्या, देवेन्द्र भी आकर अड़े, 
है खेल क्षत्रिय बालकों का व्यूह भेदन कर लड़े।
मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे,
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा जानो मुझे।

5. रौद्र रस

जिस स्थान पर अपने आचार्य की निन्दा, देश भक्ति का अपमान होता है, वहाँ पर शत्रु से प्रतिशोध की भावना ‘क्रोध’ स्थायी भाव के साथ उत्पन्न होकर रौद्र रस के रूप में व्यक्त होता है। 

श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्रोध से जलने लगे । 
सब शोक अपना भूलकर करतल-युगल मलने लगे ॥
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े। 
करते हुए घोषणा वे हो गये उठकर खड़े ॥ 
उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उनका लगा। 
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा ॥ 
मुख बाल-रवि सम लाल होकर ज्वाल-सा बोधित हुआ।
प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ ॥
-मैथिलीशरण गुप्त

6.भयानक रस

जब हमें भयावह वस्तु, दृश्य, जीव या व्यक्ति को देखने, सुनने या उसके स्मरण होने से भय नामक भाव प्रकट होता है तो उसे भयानक रस कहा जाता है। 

नभ ते झपटत बाज लखि, भूल्यो सकल प्रपंच। 
कंपित तन व्याकुल नयन, लावक हिल्यौ न रंच ॥

7. वीभत्स रस

घृणित दृश्य को देखने-सुनने से मन में उठा नफरत का भाव विभाव-अनुभाव से तृप्त होकर वीभत्स रस की व्यञ्जना करता है।

रक्त-मांस के सड़े पंक से उमड़ रही है,
महाघोर दुर्गन्ध, रुद्ध हो उठती श्वासा। 
तैर रहे गल अस्थि-खण्डशत, रुण्डमुण्डहत,
कुत्सित कृमि संकुल कर्दम में महानाश 

8. अद्भुत रस

जब हमें कोई अद्भुत वस्तु, व्यक्ति अथवा कार्य को देखकर आश्चर्य होता है, तब उस रस को अद्भुत रस कहा जाता है। 

एक अचम्भा देख्यौ रे भाई। ठाढ़ा सिंह चरावै गाई ॥
जल की मछली तरुबर ब्याई। पकड़ि बिलाई मुरगै खाई।।
– कबीर

9. शान्त रस

वैराग्य भावना के उत्पन्न होने अथवा संसार से असंतोष होने पर शान्त रस की क्रिया उत्पन्न होती है। 

बुद्ध का संसार-त्याग-
क्या भाग रहा हूँ भार देख? 
तू मेरी ओर निहार देख-
मैं त्याग चला निस्सार देख। 
अटकेगा मेरा कौन काम। 
ओ क्षणभंगुर भव ! राम-राम ! 
रूपाश्रय तेरा तरुण गात्र,
कह, कब तक है वह प्राण- मात्र,
बाहर-बाहर है टीमटाम।
ओ क्षणभंगुर भव! राम-राम !

10. वात्सल्य रस

अधिकतर आचार्यों ने वात्सल्य रस को श्रृंगार रस के अन्तर्गत मान्यता प्रदान की है, परन्तु साहित्य में अब वात्सल्य रस को स्वतन्त्रता प्राप्त हो गयी है। 

यसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावैं दुलरावैं, जोइ-सोई कछु गावैं । 
जसुमति मन अभिलाष करैं।
कब मेरो लाल घुटुरुवन रेंगैं, 
कब धरनी पग द्वैक घरै। 

11.भक्ति रस

जब आराध्य देव के प्रति अथवा भगवान् के प्रति हम अनुराग, रति करने लगते हैं अर्थात् उनके भजन-कीर्तन में लीन हो जाते हैं तो ऐसी स्थिति में भक्ति रस उत्पन्न होता है। उदाहरण

जाको हरि दृढ़ करि अंग कर्यो। 
सोइ सुसील, पुनीत, वेद विद विद्या-गुननि भर्यो। 
उतपति पांडु सुतन की करनी सुनि सतपंथ उर्यो । 
ते त्रैलोक्य पूज्य, पावन जस सुनि-सुन लोक तर्यो। 
जो निज धरम बेद बोधित सो करत न कछु बिसर्यो । 
बिनु अवगुन कृकलासकूप मज्जित कर गहि उधर्यो

Q1. रस के कितने भेद हैं?

रस के ग्यारह भेद होते है- (1) श्रृंगार रस (2) हास्य रस (3) करुण रस (4) रौद्र रस (5) वीर रस (6) भयानक रस (7) वीभत्स रस (8) अद्भुत रस (9) शांत रस (10) वत्सल रस (11) भक्ति रस।

Q2. रस के अंग कितने होते हैं?

रस हिंदी व्याकरण के 4 अंग होते हैं- (1) स्थायी भाव, (2) विभाव, (3) अनुभाव, (4) संचारी भाव

Q3.रस क्या होता है? 

‘रस’ शब्द रस् धातु और अच् प्रत्यय के संयोग से बना है। संस्कृत वाङ्गमय में रस की उत्पत्ति ‘रस्यते इति रस’ इस प्रकार की गयी है अर्थात् जिससे आस्वाद अथवा आनन्द प्राप्त हो वही